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भाषा, धर्म और नाम पूछकर, गोलियों से दागा हैं तुमने।


 भाषा, धर्म और नाम पूछकर.. 


भाषा, धर्म और नाम पूछकर,

गोलियों से दागा हैं तुमने।

किस धर्म के हो तुम,

उस धर्म ने यही सिखाया क्या??


शर्म करो, लाज रखो,

खुद को न महान समझो।

बेवजह किसीको मारना,

इससे बड़ा कुकर्म कोई ना।।


तुम मानव तो नहीं,

मानव के नाम पर कलंक हो।

गोली मारते वक़्त क्यूं नहीं तुम्हारे हाथ काँपे,

हिन्दुस्थान में जन्मे हो,

आखिर अपने पड़ोसी अपने लोग पहलगाम कश्मीर याद नहीं आया क्या??


डर-डर से काँपे होंगे,

न जाने कितने लड़खड़ाते भागे होंगे।

कैसे संस्कार में पले हो,

ख़ूनी हांथों से रंगे हो।।


करते आ रहे हो भेद भाव,

क्या यही जीवन का सत्कर्म हैं।

नाम पूछकर गोली चलाई,

मासूम जैसी बहन सामने न दिखाई दी।।


अरे शर्म करो,, 

चुल्लू भर पानी में डूब मरो,,

आज तुमने नाम, भाषा, धर्म पूछके मारा हैं।

एक दिन तेरा भी आएगा, 

ये कर्म का तूने जो खेला, खेला हैं।।


जात-पात क्षण में भूलके,

स्वयं को कश्मीर का पूत समझते।

मनुष्य धर्म का कर्तव्य निभाते,

पर तूने चंद में नाम डुबो दिया।।


कैसे कोई विश्वास करें,

कैसे कोई भाई समझें,

पल-पल होता अत्याचार देखें।

खून की होली तूने खेली,

अब देख दुनियां क्या बोलती हैं।।


भाषा, धर्म और नाम पूछकर,

गोलियों से दागा हैं तुमने।

स्वरचित, मौलिक रचना 

दुर्वा दुर्गेश वारिक 'गोदावरी' गोवा

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