महिला दिवस पर सोशल मीडिया पर बधाइयों की बौछार थी। हर ओर से संदेश आ रहे थे—
"नारी शक्ति को प्रणाम,"
"बिना महिलाओं के ये दुनिया अधूरी है,"
"हर नारी का सम्मान करें,"
और न जाने क्या-क्या!
रिया के फोन पर भी बधाइयों का तांता लगा हुआ था। उसके दफ्तर के पुरुष सहकर्मी, मोहल्ले के लोग, रिश्तेदार—सबने महिला दिवस की शुभकामनाएं भेजी थीं। लेकिन रिया जानती थी कि ये सब बस एक दिखावा है।
सुबह से लेकर शाम तक...
सुबह जब वह घर से निकली, तो उसी मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी, जो अभी महिला दिवस पर महिलाओं के सम्मान की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे, उसे घूरते हुए गली के नुक्कड़ पर बैठे थे। उनका नजरों से शरीर को तौलना किसी भी महिला को असहज कर सकता था।
रास्ते में ऑफिस जाते वक्त बस में एक आदमी ने उसे धक्का दिया और बिना माफी मांगे आगे बढ़ गया, जैसे यह उसका हक हो। रिया ने विरोध करना चाहा, लेकिन बाकी यात्रियों ने ऐसे अनदेखा किया जैसे कुछ हुआ ही न हो।
ऑफिस में पहुंची तो बॉस, जिसने सुबह-सुबह महिला दिवस की शुभकामनाएं दी थीं, मीटिंग में उसकी राय को नज़रअंदाज कर चुका था। जब उसने एक महत्वपूर्ण सुझाव दिया, तो उसी के पुरुष सहकर्मी ने उसे दोहराकर अपने नाम कर लिया, और बॉस ने उसे शाबाशी दे दी। रिया को गुस्सा भी आया और दुख भी, लेकिन वह चुप रही, क्योंकि यह रोज़ की बात थी।
लंच टाइम में उसके सहकर्मी, जो सुबह कह रहे थे "आप महिलाओं के बिना समाज अधूरा है," वही उसे चाय बनाने को कह रहे थे। जब उसने विरोध किया तो तंज़ कसा गया—
"अरे, नाराज़ क्यों हो गईं, मज़ाक था!"
शाम का सच...
शाम को जब वह घर लौटी, तो पति का चेहरा गुस्से से तना हुआ था—
"कहाँ रह गई थी इतनी देर? ऑफिस में ही बस रहना है?"
रिया ने बताया कि मीटिंग देर तक चली, लेकिन उसे घूरकर चुप करा दिया गया। माँ ने भी समझाया—
"बात मत बढ़ा, घर में शांति रख।"
रिया सोचने लगी—
"घर में, दफ्तर में, सड़क पर... हर जगह यही हाल है। महिला दिवस के दिन ही हमारा सम्मान क्यों? क्या ये सम्मान सिर्फ़ एक दिन का दिखावा है?"
अगले दिन वही लोग, जो कल महिला दिवस पर बधाइयां दे रहे थे, आज फिर किसी महिला का अपमान कर रहे थे। शर्मा जी फिर सड़क किनारे बैठे किसी और लड़की को घूर रहे थे। बस में किसी और महिला को धक्का दिया जा रहा था। ऑफिस में फिर किसी महिला की राय को नजरअंदाज किया गया था। और घर में फिर किसी को चुप करा दिया गया था।
रिया जानती थी कि यह कोई नई बात नहीं है। महिला दिवस के दिन सम्मान के लड्डू बांटे जाते हैं, और अगले ही दिन वही समाज महिलाओं को दोयम दर्जे का समझने लगता है।
क्या महिला का सम्मान सिर्फ एक दिन के लिए होता है?
या समाज कभी सच में बदलेगा?
सोचिए... और बदलने की शुरुआत कीजिए!
प्रेम ठक्कर "दिकुप्रेमी"
सूरत, गुजरात