Type Here to Get Search Results !





 




होली का बदलता स्वरूप मुहल्ले भर के देवर-भाभियां खेलते थे होली

  • अल्हागंज। होली का त्योहार हंसी-ठिठोली का त्योहार है, इसमें गुझिया-पापड़, लड्डू, मठरी और भांग वाली ठंडाई के साथ परिवार और यार-दोस्तों संग रंगों में सराबोर होने का जो मजा है वो और किसी त्योहार में नहीं है। युवा पीढ़ी तो आज भी होली के हुड़दंग में मस्त रहती है लेकिन हमारे बुजुर्गों की मानें तो अब से पचास-साठ साल पहले में होली की परंपरा और रंग ही कुछ और थे।


बुजुर्ग बताते हैं कि होलिका बनने के बाद शाम को महिलाएं पूजा करने आती थीं तो लड़के पूजा में चढ़ी गुजिया-पपड़ी, लडड् उठाकर खा लेते थे। बाजार में दुकानदार अपनी दुकानों के आगे थाली में रंग सजाते थे। आने-जाने वालों को रंग लगाकर गले मिलते थे। भांग पीसी जाती थी। ठंडाई पीकर मस्त होली मनाते थे। घर में सास, जेठानी-देवरानी सब मिलकर होली की तैयारी में लगते थे। किसी में कोई द्वेष नहीं था। रंग खेलने के बाद सब एक-दूसरे के घर जाते थे। बुजुर्ग कह रहे हैं कि होली तो अब भी वही है लेकिन यह परंपराएं कहीं खो गईं है। एकल परिवार हो गए, लोग अपने आप में ही मस्त रहने लगे हैं। बड़े ही नहीं बच्चे भी अपने आप में व्यस्त हैं। अब होली तो है पर प्यार वाले वो रंग कहीं खो गए हैं।हम चंदा नहीं मांगते थे, गाड़ियों से कंडे खींच लेते थे

शिवकिशोर प्रजापति बताते हैं उनके जमाने में होली में मोहल्ले की भाभियां टोली में निकलती थीं। मुहल्ले भर के लड़के (देवर) घूम-घूमकर मुहल्ले की भाभियों को रंग लगाते थे, पैर छूकर हंसी ठिठोली करते थे। होली जलाने के लिए कोई चंदा नहीं होता था। लड़के दुकानों और गाड़ियों से कड़े और लकड़ी खींच कर लाते थे। कोई इसे बुरा नहीं मानता था। अब की तरह पहले कोई हुड़दंग नहीं होता था। सब मिलजुल कर होली की खुशियां मनाते थे।

नंदोई, जीजा-फूफा को पैरों में रंग लगवाए बिना जाने नहीं देते थेे । रामवती बताती है उनके समय की होली उन्हें भुलाए नहीं भूलती। आजकल लोग घर में होली का त्योहार मना लेते हैं। रामवेटी बताती हैं कि उनके समय में होली के रंग अलग ही होते थे। ननद-नंदोई, जीजा-फूफा होली में आते थे। भाभियां-सालियां रंग के थापे और पैरों में रंग लगाकर उनका मुंह मीठा कराती थीं। इसके बाद ही उन्हें जाने देते थे। रंगों में किसी तरह की कोई मिलावट नहीं होती थी। होली से कई दिन पहले से गुझिया-पापड़, मठरी और पकवान बनते थे। घर के आंगन में गुझिया-पापड़ बड़ी थाल में रखे जाते थे। पहले नई नवेली बहुओं को होली पर बाहर नहीं निकलने देते थे। नहाने के बाद सुबह से बहुएं सास के साथ पूजा-पाठ में बैठती थीं। फिर पूरे घर का खाना-पीना बनाते थे। शाम को होली की पूजा के बाद सब मिलकर खुशियां मनाते थे। घर के सभी भाई-बहन, जेठ-देवर परिवार और बच्चों समेत होली पर हफ्तों पहले आते थे और होली के बाद भी हफ्तों तक रुकते थे। घर के आंगन में गुझिया-पापड़ लाकर बड़ी थाल में रखे जाते थे। मुहल्ले में लोग एक-दूसरे से होली मिलने जाते थे।

अब न वो उत्सव रह गए हैं न ही वो समय

 त्योहारों की परंपराएं धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं। अब न वो उत्सव रह गए हैं न ही वो समय। अब होली की हंसी-ठिठोली गायब सी हो गई है। लोग पापड़, नमकीन और गुझिया आदि चीजें बाजार से खरीदकर लाने लगे हैं। शहरों में परिवार अलग हो गए। होली तो अब भी वही है लेकिन परंपराएं बदलती जा रही हैं। पहले पूरा परिवार साथ-साथ होली जलाने जाता था, अब तो नौकरी और काम के चक्कर में कोई आज-जा नहीं पाता।


होली में महज कुछ ही दिन बचे हैं, लेकिन अब होली की आहट देने वाले वहीं पुराने होली गीत के मदहोश कर देने वाली धुन और गीत सुनाई नहीं दे रहे। खास तौर से सांझ ढले जोगीरा साराररा तो अब सुनने को ही नहीं मिलता, लेकिन अब भी कहा जाए तो आजकल के अश्लील होली गीतों पर पुराने होली गीत भारी पड़ते हैं। दरअसल, गांवों में वसंत ऋतु के आगमन से ही गांवों के युवाओं और बुजुर्गों द्वारा फाग गीतों के मस्ती भरे बोल सुनाई देने लगते थे।

गांवों में चौपालों पर बैठकों में होली गीत के मस्तानों की टोली आ जुटती थी। सांझ ढलते ही ढोलक-झाल पर उत्साही गवइयाें की महफिल सज जाती तो फिर कब आधी रात हो जाती, पता ही नहीं चलता। पहले तो धार्मिक फाग लिए गाने गाए जाते और जब महफिल चरम पर पहुंच जाती तो देवर-भाभी, पति-पत्नी, जीजा-साली और अन्य मजाकिया रिश्तों को गुदगुदाते, आह्लादित करते, झिझोड़ते गीतों तक पहुंच जाते। आज बिरज में होरी रे रसिया..,रधुवर जी वैर करोना.., होरी खेलें रघुबीरा अवध में होरी खेलें रघुबीरा...। कबीरा सररररर.. जैसे पारंपरिक होली गीत अब सुनने को नहीं मिलते और न ही लोगों के घरों पर एकत्र होकर होली गीत गाने वालों के दर्शन होते हैं। यह परंपरा ही अब खत्म होने के कगार पर है।

हां, अब उनकी जगह फूहड़ और अश्लील गाने सुनने को मिल रहे। सवारी वाहनों, जीपों, टेम्पो और लग्जरी गाड़ियों में फूहड़ गानों वाले कैसेट की भरमार हो गई। एक समय था, जब होली के पन्द्रह-बीस दिन पहले से ही गांवों में फाग गाने वाली मंडलियां दिखाई देने लगती, जगह-जगह पर लोक कलाकारों के कार्यक्रम होते, लेकिन अब डीजे के चलन के चलते सब कम हो गए।


Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Hollywood Movies



 

AD C