भागती ज़िंदगी का ठिकाना कहां होता है..
हवाओं को विपरीत दिशा में बहते देखा है।
मेरी जान तेरा रुख बदलते देखा है।
जीवन में बहुत से तूफानों को आते देखा है।
सबको तेरी मेरी बुराई करते देखा है।
जीवन में लोगों को जोकर बनते देखा है।
पीठ पीछे गलत लोगों को हंसते देखा है।
घड़ी को उल्टी दिशा में चलते देखा है।
दुश्मन को दोस्त बनते देखा है।
मौसम की तरह लोगों को बदलते देखा है।
वैसे भी भागती ज़िंदगी का ठिकाना कहां होता है।
अच्छे को बुरा, बुरे को अच्छा बनते देखा है।
हंसते चेहरे को अक्सर रोते हुए देखा है।
मोबाईल की दुनिया में सबको साथ देखा है, पर..
किसी अपनों को वक्त देते हुए नहीं देखा है।
भागती हुई ज़िंदगी में मैंने अक्सर अपनों को खोते देखा है।
संयुक्त परिवार को विभक्त होते हुए देखा है।
वैसे भी भागती ज़िंदगी का ठिकाना कहां होता है।
स्वरचित, मौलिक रचना
दुर्वा दुर्गेश वारिक "गोदावरी"
गोवा