छोड़ सिंहासन, द्वारकाधीश दौड़े,
सुनत सुदामा नाम।
भूल गए अपनी ठाकुराई,
रोए ऐसे घनश्याम ।।
अंक लगाई, अंसुवन जल ढारे,
उनके नंगे पांव।
पांव पोंछ पट, कर सर रख,
करते उनको छांव।।
नगर निवासी,देख दंग हुए,
द्वारकाधीश के हाल।
भाव विभोर हो, हरि भूल गए,
अपनी प्रभुता के पद चाल।।
कहो सखा ! क्या भूल गए ?
वो तंदुल वाली रात।
कहां लगाए इतने दिन,
तुम क्यों न पूछे कुछ बात ?
भातृजाया ने भेंट में,
मेरो को भेजा क्या कुछ खास ?
दाबि कुक्षि क्यों बैठे हो ?
काहें न देते मेरे पास ।।
दुई मुठ्ठी, दुई लोक दियो,
तीजे वैकुंठ के साथ।
झट लक्ष्मी,पट पकड़ लियो,
ना ऐसो करो तुम नाथ।।
दीनबंधु, दयानिधि,
ऐसो हैं द्वारकानाथ।
अनाथों के नाथ बन,
करते सबको सनाथ ।।
स्वरचित_मौलिक_अर्चना गाजीपुर उत्तर प्रदेश