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कभी-कभी सोचता हूँ कि, एक पत्थर भी आदमी से

 

काश मैं पत्थर बन जाऊँ---

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कभी-कभी सोचता हूँ कि, 

एक पत्थर भी आदमी से, 

कितना महान बन जाता है|

जहाँ कुछ लोग आजीवन, 

इंसान नहीं बन पाता है किंतु

लोगों के बनाए हुए मंदिर में, 

वही पत्थर भगवान बन जाता है||


घाट पर रखा एक पत्थर, 

लोगों का मैल धो देता है|

किंतु घाट पर बैठा आदमी, 

लोगों के मन में जाने अनजाने, 

नफरत का बीज बो देता है||


हमने अक्सर यह देखा है,

कि,मील का एक पत्थर, 

अजनबियों को राह दिखा देता है|

लेकिन यह सच है कि कुछ , 

ऐसे भी लोग है जो अपनों, 

को भी राह से भटका देते हैं||


इसीलिए तो सोचता हूँ कि, 

काश मैं भी पत्थर बन जाऊँ|

जो काम आदमी होकर न कर सका, 

वो करामात पत्थर बनकर, 

सहज रूप में कर जाऊँ||

रचनाकार:-श्रवण कुमार साहू, "प्रखर"

शिक्षक/साहित्यकार, राजिम,गरियाबंद(छ.ग.)

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