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बदलता स्वरुप - घर-आंगन, बगीचों में बीते जमाने की बात हो गई सावन के झूले

 


  • परंपराएं बदलीं तो प्रकृति ने भी स्वरूप बदलान अब सावन में झूले दिखते हैं न घर के सामने आंगन, आधुनिकता में फंसे लोग पंपराओं से दूर भाग रहे एक जमाना था जब सावन का महीना  शुरू होते ही घर, आंगन और व बगीचे में लगे पेड़ों पर झूले लगाकर लोग लुफ्थ उठाते थे लेकिन समय के साथ बगीचे से पेड़ और झूले दोनों गायब होते चले गए।

हालांकि सावन माह आम जनमानस को प्रकृति से जोड़ता है लेकिन दौड़-भाग भरे इस जमाने में प्रकृति के संग झूला-झूलने का वक्त किसी के पास नहीं है। न वह बात अब नजर आती। खासकर ग्रामीण क्षेत्र में बच्चों सहित बड़े भी सावन के झूलों का लुत्फ नहीं उठा पाते। गावों में झूलों के बिना सावन अधूरा माना जाता था लेकिन अब शहरों के साथ ही गांव में भी सावन में झूले नजर नहीं आते। इसका मुख्य कारण मनोरंजन के नए-नए साध, घरों के सामने के आंगन और पेड़ों का ही खत्म हो जाना है।

सावन शुरू होते ही मायके आने लगती थीं बेटियां

अभी कुछ साल पहले तक ही सावन माह  शुरू होते ही खासकर गांवों में बेटियां अपने मायके आने लग जाती थीं। जहां शादी से पूर्व की अपनी सखियां के साथ सावन में झूले के साथ लोकगीत का आनंद उठाया करती थीं, वो अपने बचपन के बीते दिनों की यादों को ताजा करने ही सावन में घर आती थीं, लेकिन अब इस आधुनिक युग में उनका मिलना-जुलना भी लगभग खत्म सा हो चुका है। पहले साल में एक यही समय रहता था जब बेटियां शादी के बाद अपनी बचपन की सखियों से अपने मायके में मिला करती थीं। सावन के आते ही गली-कूचों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। अब न तो पहले जैसे बगीचे रहे और न ही मोर की आवाज सुनाई देती है। यानि बिन झूला झूले ही सावन गुजर जाता है।

राधा-कृष्ण झूले थे, तभी से परंपरा जारी

भारतीय संस्कृति  में झूला झूलने की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। भगवान श्रीकृष्ण राधा के संग झूला झूलते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढऩे के साथ ही प्रकृति से जुडऩे की प्रेरणा मिलती है। सनातन धर्म और हिंदू ग्रंथों में भी इसका उल्लेख है।  राधा-कृष्ण के प्रेम को जीवन में प्रेम का प्रतीक माना जाता था। गोकुल, वृंदावन में उनके झूला झूलने के किस्से काफी ख्यात रहे हैं। सभी यह बात जानते भी हैं, लेकिन आज की आधुनिक परंपराओं ने इसे ढंक दिया, स्वरूप को ही बदल डाला। अब फिर से उस जमाने को दोहराने का समय है, ताकि सावन को जीवंत किया जा सके।

कच्चे नीम की निबोरी सावन आयो रे..


सावन का महीना और मानसून की रिमझिम बारिश हो तो महिलाएं भला खुद को कैसे रोक सकती हैं। शाम होते ही वे गांवों में समूह बनाकर और नए कपड़े पहनकर सार्वजनिक स्थानों पर आ जाती हैं और गूंजने लगते हैं सावन के गीत।

‘कच्चे नीम की निबोरी सावन जल्दी आयो-रे...’, ‘काच्ची ईमली गदराई सावन में...’, ‘कहियों री कंथ मेरे न...’, ‘बीन घाली ले जाए सावन में...’ जैसे तमाम लोकगीतों के साथ गांवों में महिलाएं सावन से जुड़ी परंपरा है. सावन और बारिश के दौरान लोकगीत और कथाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। महिलाएं नीम व बरगद के पेड़ पर झूला डालकर बारिश के साथ ही सावन के गीत ’पड़ गए झूले सावन रितु आई रे..’, ‘सावन का महीना पवन करे शोर...’, ‘सावन की ऋतु है मां मेरी आ गई री...’, ‘झूलन लागी है मां मेरी बाग में...’ शुरू कर देती हैं।

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