दो जून कि रोटी के लाने, देखो लोग फिरत हैं ।
तरह-तरह के भेष धरत औ, स्वर्णिम जीव सरत हैं ।
मात-पिता परिवार छोड़ , सारे जहां में घूमें ,
दो जून कि रोटी पाने को, जमीं आसमा चूमें ।
ऊंच-नीच सब काम करत जन, मारा मारा फिरता,
सत असत का भेद भूल कर, मानव मन से गिरता।
काली रातें जेठ दुपहरी ,नहीं रोकती जन को ,
दो जून की रोटी हथियाने, सदा झोंकता तन को।
"अनजान" भटकता फिरता है, सारी संसारी में
पूरा जीवन खपा देत वह , दो जून कि रोटी में ।।
मौलिक
डॉ. आर. बी. पटेल "अनजान"
शिक्षक व साहित्यकार
बजरंग नगर कॉलोनी छतरपुर
म. प्र. 9755155016