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जिसकी छाया में विश्रांति हो, वही वृक्ष मातृस्वरूपा होता है।

 


जिसकी छाया में विश्रांति हो,

वही वृक्ष मातृस्वरूपा होता है।

तप्त जीवन की इस उष्णता में,

वह सदैव शीतल सुधा बरसाता है।


गहन भूमितल में जिसकी जड़ें  हैं,

उसकी शाखाएँ  नभ का स्पर्श करती हैं।

सहिष्णुता की प्रतिमा सा वह,

प्रत्येक पीड़ा आत्मसात करता है।


उसका प्रत्येक पत्र, जीवन की,

 सतत अनूठी कथा  कहता है ।

प्रत्येक टहनी में वात्सल्य का,

 मधुर अमूल्य स्पंदन झलकता है।


स्वयं को अर्पित कर देने की, 

वह चिरंतन साधना करता है ।

वह निरंतर सर्वस्व समर्पण का ,

भाव हृदय में संजोकर रखता है ।


मीठे फल प्रदान करता है,

सुगंधित पुष्प बिखेरता है ।

छाया की ममतामयी चादर तले,

 सबको प्रेम से शरण देता है।


चाहे पतझड़ का प्रकोप हो ,

या भीषण तूफ़ान का अंधड़ ।

सभी ऋतुओं में अचल खड़ा वह,

 साहस और धैर्य का संदेश देता  है।


यदि उसका तन काटा भी जाए,

तो पीड़ा को मुख पर नहीं लाता।

उसकी प्रत्येक निस्वार्थ प्रवृत्ति,

मातृत्व की  पर्याय बन जाती है।


बालक उसकी शाखाओं पर चढ़ते हैं,

पत्तियाँ तोड़ते हैं, फल गिराते हैं।

फिर भी वह सौम्य मुस्कान से,

उनके बालपन को निहारता रहता है ।

जैसे माता, संतानों  के दोषों को क्षमा कर 

उन्हें प्रेम से आलिंगन करती है।



माँ और वृक्ष दोनों ही,

 त्याग  बलिदान की जीवंत व्याख्याएँ हैं।

प्रत्येक शाखा में निहित है,

आशीर्वचनों का मधुर गान—

"सुखपूर्वक जीओ, दीर्घायु रहो",*

यही उसकी निष्कलुष प्रीति का वरदान है।

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 श्रीमती वैशाली श्रीवास्तव 

 सिंधिया कन्या विद्यालय 

 ग्वालियर 


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