पंचगव्य की मैं हूँ धात्री-(गौ माता)
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हे! कान्हा कहाँ हो तुम,
अरे!क्यों आने में देर लगाए हो|
वादा किया था गीता में जो,
उन्हें अब तक क्यों न निभाए हो||
मैं धर्म रूपी धरती हूँ कान्हा,
किंतु पग-पग ठोकर खा रही|
निज सम्मान बचाने हेतु,
आज फिर तुझको गोहरा रही||
मैं गौ माता बिलख कर रो रही,
फिर भी तुम काहे ठुकराए हो--
हे! हिंदू तुम कब जागोगे,
मैं स्वयंसिद्ध ही प्रकृति हूँ|
तेरे पुरखों ने जो मान बढ़ाया,
मैं वो सनातन संस्कृति हूँ||
अपने भक्तों से पूछो तो जरा,
क्यों मेरा मान घटाए हो--
पंचगव्य की मैं हूँ धात्री,
तैतीस कोटि देवता करे निवास |
फिर भी दुत्कारी जा रही,
मैं अबलाओं जैसी हुई हताश ||
कुत्तों को प्यार देने वालों,
आखिर मुझसे क्यूँ दूरी बनाए हो--
क्यों धरती का भार बढ़ा रहे,
नित्य ही गौ हत्या के पाप से|
वक़्त रहते संभल जाओ वर्ना,
दुनियाँ जल उठेगी मेरे श्राप से||
गंगा,गीता,और गौ माता को,
किस दंभ में आके भुलाए हो----
रचनाकार:-श्रवण कुमार साहू, "प्रखर"
शिक्षक/साहित्यकार राजिम,गरियाबंद (छ .ग.)