जब इंसान की इंसानियत मर जाती हैं,
अपने-अपने को पहचाना भूल जाते हैं।
रिश्ते नाते में तू-तू, मैं होने लगती हैं,
तब घरौंदा टूटने से पहले सब कुछ बिखर जाता हैं।।
एकदूजे का साथ छूट जाता हैं,
घर आंगन सुन हो जाता हैं।
अपनों को अपने से ज्यादा,
पराये अपने लगते हैं,
साथ थे तो अच्छा था,
अब अकेलापन महसूस होता हैं।
घरौंदा टूटने से पहले सब कुछ बिखर जाता हैं।।
एकदूजे में नुक्स निकालने लगते हैं,
हर बातों का बेमतलब निकालने लगते हैं।
हंसती हुई जिंदगी, रोते हुए काटने लगते हैं,
तब घरौंदा टूटने से पहले सब कुछ बिखर जाता हैं।।
खुशी भरी जिंदगी को नमी से जीते हैं,
बीमारी हो या दुख में अपने साथ छोड़ जाते हैं।
सब साथ होते हुए भी,
हर राह पर अकेले चलना पड़ता हैं,
तब घरौंदा टूटने से पहले सब कुछ बिखर जाता हैं।।
बड़ो को मान-सम्मान न देना,
छोटो को प्रेम न करना।
भागदौड़ की जिंदगी में किसीका ख्याल तक न रखना,
तब घरौंदा टूटने से पहले सब कुछ बिखर जाता हैं।।
स्वरचित, मौलिक रचना
दुर्वा दुर्गेश वारिक "गोदावरी"
गोवा