तू कहता है, ऐ दोस्त !
तू कहता है, ऐ दोस्त !
कि मैं हंसती नहीं।
तुझे कैसे बताएं कि,
मेरी इस जमाने से पटती नहीं।।
दुनिया देखने गई तो,
दो देश लड़ रहे।
अहंकार के भेंट ,
उसके अति दीन हो रहे।
जिंदगी के गुलिस्ते,
सब बियाबान हो रहे।
और तू कहता है कि,
मैं हंसती नहीं।।
शहर - गांव गई तो,
अमीर- गरीब लड़ रहे।
धर्म के नाम धर्माधिकारी,
दो ध्रुव बंट रहे।
जाति के ज़हर से,
विषैले नौजवान हो रहे।
और तू कहता है कि,
मैं हंसती नहीं।।
पास - पड़ोस परखा तो,
प्रत्येक परिवार लड़ रहे।
अपनी ईर्ष्या की आग से,
बेकसूर को भी ना बख्स रहे।
मौका देख मंजिलें,
उसकी मटियामेट कर रहे।
और तू कहता है कि,
मैं हंसती नहीं।।
घर बीच घूमी तो,
सगे - संबंधी स्वार्थ में सिमट रहे।
भूमि के लिए, अपने भाव बदल रहे
पैसे से प्रेम की, वो कीमत तोल रहे।
और तू कहता है कि,
मैं हंसती नहीं।।
तो सुन, ऐ मेरे दोस्त !
यही वजह है कि,
मेरी इस जमाने से पटती नहीं।
और देख ये दृश्य ,
मैं कभी हंसती नहीं।।
स्वरचित_मौलिक_अर्चना गाजीपुर उत्तर प्रदेश