हे! हथोड़ा उठायें शिल्पकरो सुन लो,
आज तुम्हारी वह आवाज उठा रहा हूं
जो सदियों से दबी कुचली थे
उन अल्फाजों को लिख रहा हूं |
तुम इंसान तो बना सकते नहीं,
बस मंदिरों के लिए कारोबार बनाते रहे हो||
क्योंकि अजीब विडम्बना है,
प्रभावशाली की बनाई इस व्यवस्था की |
लोगों के खोखले कर्मकांड और,
उनके जीवन व्यवहार की||
आप जो इंसान बनाते हो न,
वह दर-दर ठोकर खाते है|
किंतु तुम जो भगवान बनाते हैं,
वह हर पल पूजा जाएं है।
प्रभावशाली के कारोबार चम चमकाया करते हैं।।
तुम्हारी औकात इतनी ही है
मैं बराबरी कि, मैं आपसे इनकी तुलना करूँ|
बस आपसे इतनी गुजारिश है कि,
तुम्हें बनाने में कोई भूल न करूँ||
जो छेनी हथौड़ी की मार खाकर,
बिखरते है,वो कारोबार पनपने के लिए
प्रभावशाली के लिए बना बनाया कारोबार देते|
जो निज विद्रोह से घबराते हैं वो,
जीवन में सम्पन इंसान नहीं बनते||
हे! शिल्पकारों अपने महापुरुषों को,
इंसानों की तरह कभी भुलना नहीं|
अपने बौद्ध धम्म की राह पाकर,
अभिमान में कभी भी फूलना नहीं||
रचनाकार:-©® गंगा शाह आशुकवि
साहित्यकार, उत्तराखंड